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हिंदुत्व में सेवा भाव की अवधारणा : परहित सरिस धर्म नहीं भाई। परपीड़ा सम नहीं, अधमाई।।

हिंदुत्व में सेवा भाव की अवधारणा 

"सर्वे भवन्तु सुखिन : सर्वे भवन्तु निरामया :

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुखभाग्भवेत। "

अर्थात सब सुखी हो ,सब आरोग्यवान हों ,सब सुख को पहचान सकें ,कोई भी प्राणि किसी बिध दुखी न हो। 

May all be happy ;May all be without disease ; May all see auspicious things ; May none have misery of any sort.

सनातन  धर्म (हिंदुत्व ) सेवा को सबसे बड़ा धर्म मानता है। 

परहित सरिस धर्म नहीं भाई।

 परपीड़ा सम नहीं, अधमाई।। 

सेवा यहां एक सर्व -मान्य सिद्धांत  है।मनुष्य का आचरण मन ,कर्म  ,वचन ऐसा हो जो दूसरे को सुख पहुंचाए। उसकी पीड़ा को किसी बिध कम करे।

सेवा सुश्रुषा ही अर्चना है पूजा है:

ईश्वर : सर्वभूतानां  हृदेश्यरजुन तिष्ठति।  

जो सभी प्राणियों के हृदय प्रदेश में निवास करता है। सृष्टि के कण कण में उसका वास है परिव्याप्त है वही ईश्वर पूरी कायनात में जड़ में चेतन में। इसीलिए प्राणिमात्र की सेवा ईश सेवा ही है। 

सेवा के प्रति हमारा नज़रिया (दृष्टि कौण )क्या हो कैसा हो यह महत्वपूर्ण है :

तनमनधन सब कुछ अर्पण हो अन्य की सेवा में। 

दातव्यमिति यद्दानं दीयतेअनुपकारिणे। 

देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्विकं स्मृतम।| 

That gift which is made to one who can make no return ,with the feeling that it is one's duty to give and which is given at the right place and time and to a worthy person ,that gift is considered noble.

तोहफा या दान किसी भी प्रकार की सहायता बदले में कुछ प्राप्ति की आशा न रखते हुए कर्म समझकर की  जाए ,स्थान और अवसर की  आवश्यकता और पात्र को देखकर की जाए। जरूरत मंद को आड़े वक्त मदद दी जाए।

जीवने यावदादानं स्यात स्यात् प्रदानं ततोधिकम। 

Let us give more than what we take in life .

जीवन ने हमें जो दिया है हमें सबकुछ जो भी मिला है हम उससे ज्यादा देवें। 

मोहनदास करमचंद गांधी (महात्मा गांधी) के सेवा के प्रति भाव और सेवा भाव के प्रति उनकी प्रेणना का स्रोत 

The best way to find your self is to lose yourself in the service of others .

Mahatma Gandhi was quite impressed with the story of Ranti Deva mentioned in Bhagvata Puran written by Sage Veda Vyasa.Mahatma Gandhi adopted Ranti Deva's message as a basis for all his seva work .

हमारे पुराणों में अक्सर कहानियों किस्सों ,कथाओं के माध्यम से आम औ ख़ास को सन्देश दिया गया है। राजा रंति  देव की कथा आती है। एक बार उनके राज्य में भीषण अकाल पड़ा।महाराजा ने अन्न न ग्रहण करने  का प्रण लिया ,वह तब तक कुछ भी ग्रहण  नहीं करेंगे जब तक प्रजा में एक भी भूखा है। ४८ दिनों तक उन्होंने अन्न ग्रहण नहीं किया। जब वह एक ग्लास शीतल जल से अपना उपवास संपन्न करने जा रहे थे तभी पुल्कसा का आर्तनाद उन्हें सुनाई दिया -जल चाहिए मुझे। आपने वह जल उसे ही दे दिया। 

जैसे ही वह अन्न का कोर तोड़ के उसे ग्रहण करने का उपक्रम कर रहे थे उसी क्षण एक अतिथि उनके द्वार पर आ गया। राजा ने अपने हिस्से का  भोज्य उसे दे दिया। इस प्रकार प्रजा जनों के सारे संताप को उन्होंने भोगा।  

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