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कलि -संतरणोपनिषद मंत्र संख्या ११ -भाव -सार,व्याख्या भाग

कलि -संतरणोपनिषद मंत्र संख्या ११ 

(कुल ग्यारह ही मंत्र हैं इस उपनिषद में जो महामन्त्र का माहात्म्य उद्घाटित करते हैं कलिमल के निस्तारण निवारण का सहज सुलभ साधन है -महामन्त्र -"हरे कृष्णा हरे कृष्णा ,कृष्णा कृष्णा हरे हरे ,हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ")

सर्व धर्म परित्याग पापात् सद्य : शुचितम अप्नुयात | 

सद्यो मुच्यते सद्यो मुच्यते इत्युपनिषत || 

शब्दार्थ :

सर्व -सभी ; धर्म -धर्म कर्म ,धार्मिक विधि -विधान में कहे- बताये कर्मकाण्ड  ; परित्याग -छोड़कर , त्याग करके ,; पापात -पापों से ; सद्य -तत्काल ; शुचितम -पावित्र्य ; अप्नुयात -निश्चित ही प्राप्त होता है ; मुच्यते -मुक्त हो जाता है ; इत्युपनिषत -यही सार है इस उपनिषत का।

भाव -सार :शेष कर्तव्य कर्मों कर्मकांड आदि का परित्याग कर इस महामंत्र के जप -पाठ-स्मरण  से निश्चित ही पापों से निवारण और  पावित्र्य  प्राप्त होता है इसमें ज़रा भी विलम्ब नहीं है।

व्याख्या भाग -सर्वधर्म का अभिप्राय सभी प्रकार के कर्तव्यकर्मों से है। जैसे  सामान्य कर्मों में सत्य कहना ,शुचिता (स्वच्छता तन की ),अचौर्य (किसी की कोई वस्तु न चुराना ), और विशेष कर्मों के तहत पति /पत्नी के रूप में परिवार के प्रति किये गए कर्तव्य कर्म ,ब्राह्मण शिक्षक के अपने शिष्य के प्रति किये गए कर्म आदि। 

इस प्रकार इस उपनिषद का एक अप्रतिम स्थान है अन्य उपनिषदों के बीच में। इसलिए प्रत्येक प्राणी को इसका अनुगामी होना चाहिए। जो ऐसा नहीं करते वह भाग्यहीन कहे गए हैं। क्योंकि ऐसा करके वह मनुष्य जीवन  के एकमात्र लक्ष्य से चूक जाते हैं कृष्ण से मिलन नहीं मना पाते।

मनुष्य काया (मनुष्य यौनि )में ही यह अवसर उपलब्ध है किसी पशु देव या अन्य यौनि में नहीं। कुछ प्राणियों में मस्तिष्क का ही विकास नहीं है वह कुछ नहीं सीख समझ सकते हैं। कुछ लोग भोग यौनि में ही बने हुए हैं पशुवत -खाना ,पीना -सोना ,संतान उत्पत्ति और आत्मरक्षा। 

बार -बार यहां इसीलिए  स्मरण करवाया जाता है महा मन्त्र की शोधन क्षमता का ,कलिमल नाशक मंत्र है यह। जिसका तुरंत प्रभाव होता है अलबत्ता धुलाई मशीन का भी धुलाई में लिया गया कुछ समय रहता ही है इसलिए धैर्य रखिये। 

कलियुग केवल नाम अधारा ,

सिमर सिमर भव उतरे पारा।  

कलियुग कीर्तन ही परधना ,

गुरमुख जपिये लाये ध्याना। 

बस ध्यान रहे इस जीवन में इस कलिमल निवारण के बाद और कोई पापकर्म नहीं करना है। माया दो रूपों में हम पर आक्रमण करती है। 

(१ )हमें उस स्थिति में ले आती है जिसे हम परमसुख की स्थिति मान ने लगते हैं सच इससे विपरीत है वास्तव में हमारी स्थिति अतिदयनीय है  कुछेक क्षण ही हमें मिलें हैं जिन्हें हम सुखाभास समझ लेते हैं। 

किंवदंती है  इंद्र शापित हुए थे गुरु -अपराध की एवज़ में उन्हें सूकर यौनि में भेज दिया गया। वहां वह परम सुखी थे। ब्रह्माजी जब उन्हें वापस लेने गए वैकुण्ठ के लिए वह बोले यहां मैं बहुत खुश हूँ अपनी बीवी बच्चों के साथ।सूकरों का नेतृत्व मैं ही करता हूँ।  वैकुण्ठ में मुझे विष्टा मिलेगी ?

ब्रह्माजी को उन्हें धकिया कर ही वापस वैकुण्ठ ले जाना पड़ा उनकी आत्मा को सूकर यौनि से बाहर  निकाल  कर ही वह उन्हें ले जा सके।  ऐसा होता है माया का प्राबल्य। 

दूसरी बात यह करती है माया -यह सोच पैदा कर देती है के कुछ भी यहां बदलता नहीं है क्या फायदा है अपनी स्थिति से बाहर निकलने का।बस ऐसा मन बन जाता है। 

इसकी काट के लिए ही यह मंत्र एकमात्र सहारा है टेक है। इस महामन्त्र की काट माया के पास नहीं है। भाग जाती है माया ऐसे जप -पाठी को छोड़कर  . यहां तक के माया इसके आसपास भी नहीं फटक सकती है।बच के निकलती है। 

छ : के छः गोस्वामियों ने चैतन्य महाप्रभु का बार बार आभार व्यक्त किया है जो स्वयं कृष्ण -चैतन्य महाप्रभु राधा भाव रूप  में भक्त रूप ही इस कलि  युग के प्राणियों के उद्धार के लिए अवतरित हुए थे और सहज सुलभ विधि पाप विनाश की संकीर्तन बतलाई -कलिमल नाशन ,पाप विनाशन। 

गौरांग महाप्रभु स्वयं कृष्ण ही हैं जिन्होंने भाव समाधि में नृत्य और संकीर्तन के जरिये इस मंत्र का दिग्दर्शन किया। 

हरे कृष्णा हरे कृष्णा ,कृष्णा कृष्णा हरे हरे ,

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।।

श्रीमद भागवत पुराण के बारहवें और आखिरले स्कंध के अंतिम दो श्लोक यही भाव व्यक्त करते हैं : 

हे प्रभु जन्मजन्मांतर मुझे आपके चरण पखारने चरणामृत सेवन का अवसर मिले मैं आपको प्रणाम वंदन करता हूँ आपका जिसके नाम का पावित्र्य सामूहिक संकीर्तन  प्राणियों के समस्त पापों को हर लेता है ऐसे हरि  का मैं बारम्बार स्मरण वंदन अर्चन करता हूँ। जहां भागवद्पुराण संपन्न होती है वहीँ से चैतन्य चरितामृत का आरम्भ होता है। ॐ तत्सदिति  कलि -संतरणोपनिषद:

जयश्रीकृष्ण।  

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