मूरत मधुर मनोहर देखी
भयो विदेह विदेह विशेषी।
वो (राजा जनक ) देहातीत , शब्दातीत ,भावातीत हो गए। गुरु चरणों का फल भगवान् की प्राप्ति है। जनक का ध्यान नहीं हटा राम की मूर्ती से।राम की प्रतिज्ञा है :
सम्मुख होय जीव मोहे जबहि ,
जन्म कोटि अग नासहि तबहि।
इनहिं विलोकत अति अनुरागा ,
बरबस ब्रह्म सुखहि मन त्यागा।
श्वास श्वास सिमरो गोविन्द ,
मन अंतर की उतरे चिंद।
अब मैं राम का ही सिमरन करूंगा।राम को ही भजूँगा।
और गुरु विश्वामित्र जी बहुत प्रसन्न हुए अब इसे (जनक को ) समझ में आ गया -राम सब में है। सगुन और निर्गुण दोनों के इसे दर्शन हो गए।अब इसे समझ आ गया -निराकार ,निर्विकल्प ,निर्गुण ,निर- तर्क और सविकल्प साकार यह एक ही है जो सबमें है।
गुरु के कान में जनक कह रहे हैं राम को देखते हुए- आपने मुझे पहले जो साधन बतलाया था निर्गुण ब्रह्म उपासना का अब वह मैं नहीं करूंगा।वह साधन तो बहुत कठोर है। अब मैं इनकी ही उपासना करूंगा।
लेकिन ये क्या ?
राम के दर्शन का फल तो आनंद है लेकिन जनक का मुख म्लान क्यों हो गया -तब जनक ने गुरु के कान में बतलाया मैंने इतनी कठोर और यह प्रतिज्ञा क्यों कर डाली के जो शिव के धनुष को उठाएगा उसी के गले में सीता जयमाल डालेगी।
मैंने क्यों प्रतिज्ञा कर ली अब मुझे इंतज़ार करना पड़ेगा वरना महल में जाकर सीता से कहता राम को जयमाला डाल दो जनक मन ही मन सोचते चले जा रहे हैं।
युवती भवन झरोखन लागीं -अयोध्या के भवनों के झरोखों से युवतियां राम के रूप लावण्य को निहार रहीं हैं।
राम का बड़ा सम्मान है नगर में बड़ी चर्चा है राम की । पूरे नगर में चर्चा है देखो तो राम कैसे हैं। जानकी जी भी अपने को रोक नहीं पाईं वहीँ आ गईं वन में प्रणाम करने।
राम के सकल व्यक्तित्व की ,राम के चरित्र की पूरे नगर में चर्चा है। सीता रोक नहीं पाईं अपने आप को। मंदिर जाने के बहाने से उन्होंने अपनी माँ से कहा माँ मैं मंदिर हो आऊँ। और मन ही मन कहने लगीं राम से -हे प्रभु आप भी मंदिर आ जाइये न। वहां दर्शन हो सकेंगे आप के।
अब ये भनक राम के कान में पड़ी के सीता ऐसा चाहती हैं तो वो गुरुदेव से कहने लगे हे गुरुदेव आपकी आज्ञा हो तो मैं लक्ष्मण को यह नगर दिखा लाऊँ।
गुरुदेव ने कहा बिलकुल जाओ और आराम से आना सांझ तक आना। राम ने लक्ष्मण से कहा हमने इतने बड़े बड़े काम किये चलो आज शिव के दर्शन भी कर आएं।
बिल्व ,मधुपर्क ,पंचामृत ,विशेष अर्घ्य लिए हैं ,जानकी लिए हैं। पकवान हैं दिव्य वस्त्र आभूषण हैं ,माँ को चढाने के लिए । चंदन ,रोली तमाम पूजा सामिग्री एक बड़े स्वर्ण थाल में लिए जानकी चल दीं हैं बाग़ (वन )की ओर सहेलियों के संग भगवान् को मन ही मन याद करते हुए। उनके कंगन इतने बड़े थाल को संभालते हुए हिल रहे हैं।उनके पैरों की पायल के नन्हे -नन्हे घुंघरू की ध्वनि आ रही है।
दूर से आता हुआ कंगनों का स्वर उनकी धुन ,बड़ा कुण्डल पहने हुए हैं माँ। बहु बेटियों का श्रृंगार बड़ों को आदर देने के लिए पूजा के लिए है।
"ये धुन सुन ये स्वर कहाँ से आ रहा है ?लक्ष्मण सुन ये स्वर -लखन के कंधे पर हाथ रखते हुए भगवान् कहते हैं -लक्ष्मण कहते हैं हाँ मैं इन स्वरों को इस धुन को भलीभांति पहचानता हूँ मैं इस धुन को पहचानता हूँ। जब लक्ष्मी जी सेवा करती है विष्णु की तो उनके आभूषण जो ध्वनि करते हैं लक्ष्मण उस ध्वनि को बरसों से पहचानते हैं।
अपनी अर्द्धांगनी को देख कर राम ठगे से रह गए। मेरी सीता कितनी सुन्दर हैं राम को लक्ष्मी जी से बिछड़े हुए मुद्दत जो हो गई है।राम सीता को निहार रहे हैं।
अगर मैं बार -बार सीता को देख रहा हूँ तो हे लक्ष्मण इसका अर्थ ये है मैंने सपने में भी पर -नारी नहीं देखी है ये सीता मेरी ही है।
ऐसा राम लक्ष्मण को छोटे भाई की मर्यादा रखते हुए कह रहे हैं अरे ओ लक्ष्मण ये सीता मेरी ही है मैं इसीलिए इसे बार -बार देख रहा हूँ ,मैं इक्षवाकु वंश का हूँ।मैंने सपने में भी पर नार नहीं देखी है। राम ऐसा बार बार इसलिए भी कह रहे हैं उन्हें मालूम है शिव धनु किसी से उठेगा नहीं राजा जनक झुंझला कर ऐसी वैसी बात कहेंगे -मेरे भाई को गुस्सा आएगा। आवेश में आकर कहीं वह ही धनुष न तोड़ दे।
विनय प्रेमवश भई भवानी ,
खसी माल मूरत मुस्कानी।
मूर्ती से निकलके पारवती प्रकट हो गईं -आशीष देने लगीं जानकी जी को -
जय जय जय श्री राज किशोरी ,
जय महेश मुख चंद्र चकोरी।
सुन सिय सत्य अशीष हमारी ,
पूजहि मन कामना तुम्हारी।
भारत का एक शगुन विज्ञान है -नील कंठ के दर्शन हो गए ,श्यामा आ गई ,कुमारी कन्या भरा हुआ घड़ा लेकर चल रही है इसे शुभ समझा जाता है स्त्री के बाएं अंगों और पुरुष के दाएं अंग फड़कने को शुभ समझा जाता है। बिल्ली के मार्ग में आने को अशुभ समझा जाता है। बंदर की उछल कूद के मायने भिन्न हैं।
बाएं अंग बाईं आँख फड़कने लगी माँ की। उंगलियों से छूआ आँख को और चूम लिया उँगलियों को हाथ को -मेरी मनोकामना पूरी होगी भगवान्।
जो सबसे ऊंचा था मुनियों का ,आचार्यों का,उसके नीचे राजाओं का ,और उससे भी नीचे उनके सचिवों का आसन उससे भी ऊंचा गुरु का आसन है राम -लक्ष्मण को भी वहीँ गुरु के साथ बिठाया जाता है।राम लखन तो राजकुमार थे और इस सभा में वह निमंत्रित नहीं थे केवल सभी राज्यों देशों के राजाओं को ही बुलाया गया था स्वयंवर की इस सभा में भव्य आयोजन में लेकिन वह तो गुरु के साथ थे इसीलिए किसी को कोई आपत्ति भी नहीं थी।
भूप सहस दस एकहि बारा ,
लगे उठावन टरै न टारा।
विषयी कामी राजा धनुष को हिला भी न सके। सहसत्र बाहु उठा फिर रावण उठा पर वह शिव धनु हिला न सके।अपमानित होकर कितने ही उस परिसर से लजाकर चले गए।
तब राजा ने कहा ये पूरी धरती वीर विहीन हो गई। अब कोई पराक्रमी बलशाली राजा धरा पर नहीं रहा। मुझे ये पता होता तो मैं ऐसी प्रतिज्ञा न करता।
राजा के ऐसे वचन सुनकर लक्ष्मण जी अपने स्थान से मंच से एकदम कूद गए -आवेश में आकर कहने लगे जहां मेरा भाई राम बैठा हो वहां ऐसे अ -मर्यादित शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है ,ऐसे वचन नहीं बोले जाते हैं -राजा अपना वचन वापस लो।
ये धनुष क्या मैं इस ब्रह्माण्ड को ही कच्चे घड़े की तरह फोड़ दूँ। ऐसे धनुष प्रत्यंचा चढ़ा चढ़ा के न जाने हमने अपने गुरु के साथ कितने तोड़ दिए।
और फिर तभी ऐसा कहकर लक्ष्मण मुस्कुराने भी लगे जनक को प्रणाम करके चुपके से राम के चरणों में आकर बैठ गए।राम ने उनकी तरफ देख कर उन्हें इशारों इशारों में ही तरेड़ा था ,लक्ष्मण समझ गए थे।
अब विश्वामित्र को लगा यह शुभ समय है -
विश्वामित्र समय शुभ जानी ,
बोले अति स्नेहमय वाणी।
उठौ राम भंजो भव चापा ,
मैटो चाप जनक परितापा।
राम मन ही मन गुरु को, देवसत्ता को पितृ सत्ता को प्रणाम करते हैं -पूरी परम्परा का स्मरण किया राम ने।
कथा का यहां संकेत है जब भी जीवन में कोई बड़ा काम करो -अपनी परम्परा पूर्वजों को प्रणाम करो उनके मन ही मन आशीष लो -
गुरुहि प्रणाम मन ही मन कीना ,
अति लाघव उठाय धनु लीना।
ऐसा लगा राम प्रणाम कर रहे हैं शिव धनु को ।सब कुछ पलक झपकते ही हो गया।
लेत चढ़ावत खेंचत गारै ,
काउ न लखा ,देखें सब ठाढ़ै।
देखा राम मध्य धनु तोड़ा -सबने देखा राम के धनुष ने बीच में से दो टुकड़े कर दिए हैं लेकिन कब कैसे यह किसी ने भी नहीं देखा। भगवान् का किया हुआ दिखाई नहीं देता वह बस हो जाता है।
उसकी धनुष भंग की बड़ी ध्वनि हुई। जैसे ही धनुष तोड़ा जनक जी ने जानकी जी को संकेत किए और जानकी जी चल पड़ीं।
शंख झाँझर मृदंग सब बाजे।
सखियों ने सीता जी को कहा धीरे -धीरे चलो ,सीता जी तेज़ चल रही हैं। उत्सव के आनंद में उनकी स्वाभाविक गति खो सी गई है उत्सव के भाव आनंद अनुराग में इष्ट की करुणा में में व्यक्ति कई बार अपनी सहजता खो देता है। वह खो सा जाता है कहीं।
सीताजी लखन से कहने लगीं मन ही मन -ये आँख बंद करके खड़े हैं सिर झुकायेंगे नहीं ,आँखें बंद किये रहते हैं ,इनकी तो प्रकृति ही ऐसी है ,शेष- शैया पर भी सोते ही तो रहते हैं। तुम मेरे बालक हो मेरा आज काम कर दो। लक्ष्मण ने मन ही मन कहा माँ तुम निश्चिन्त रहो मेरे पास सौ तरीके हैं राम को झुकवाने के।
लक्ष्मण जी राम के चरणों में झुक गए प्रणाम करने के लिए -राम आषीश देने के लिए लक्ष्मण को उठाने के लिए झुके -लक्ष्मण -बोले भैया प्रणाम।
राम ने पूछा ये कौन से समय का प्रणाम था। बोले लक्ष्मण राम जी को तो जब जी चाहे ,कभी भी प्रणाम कर लो।आपका स्मरण करने का क्या कोई समय होता है मेरा मन किया मैंने कर लिया।
और तुरंत जानकी जी ने जयमाल राम के गले में डाल दी।
गावहिं मंगल गान सहेली ......
परशुराम भी आये कुछ नौंक झौंक भी हुई और वह समझ गए ये राम हैं। बारात फिर अयोध्या चली आई -मांडवी भरत की, उर्मिला लक्ष्मण की और श्रुतिकीर्ति शत्रुघ्न की वामांगी बनी.
दसरथ कुछ पल के लिए अप्रसन्न हो गए -राजा जनक ने दशरथ से कह दिया अब सीमाएं आ गईं हैं दोनों नगरों की -ये सीता अब अयोध्या की दासी है अब ये अयोध्या की सेवा करेगी।
दशरथ ने कहा ये अब हमारी सीमा में है आप इसे अपने घर में कुछ भी कहो यहां अयोध्या में तो यह पटरानी है दासी नहीं है यह हमारे घर की रानी है। आइंदा ऐसे शब्दों का इस्तेमाल आप न करें।
कथा का यहाँ सन्देश है -
किसी की बेटी को लेकर आओ उसे घर की बहु बनाना पटरानी बनाना उसे इस ढंग से प्रीती देना उसे अपना घर याद न आये। यही कथा का सन्देश है।
जब ते राम ब्याहे घर आये
नित नव मंगल मोद बधाये।
सन्दर्भ -सामिग्री :
(१ )
You are watching Day 4 of Shri Ram Katha by Shri Avdheshanand Giri Ji Maharaj from Indore (Madhya Pradesh) Date: 26th
भयो विदेह विदेह विशेषी।
वो (राजा जनक ) देहातीत , शब्दातीत ,भावातीत हो गए। गुरु चरणों का फल भगवान् की प्राप्ति है। जनक का ध्यान नहीं हटा राम की मूर्ती से।राम की प्रतिज्ञा है :
सम्मुख होय जीव मोहे जबहि ,
जन्म कोटि अग नासहि तबहि।
इनहिं विलोकत अति अनुरागा ,
बरबस ब्रह्म सुखहि मन त्यागा।
श्वास श्वास सिमरो गोविन्द ,
मन अंतर की उतरे चिंद।
अब मैं राम का ही सिमरन करूंगा।राम को ही भजूँगा।
और गुरु विश्वामित्र जी बहुत प्रसन्न हुए अब इसे (जनक को ) समझ में आ गया -राम सब में है। सगुन और निर्गुण दोनों के इसे दर्शन हो गए।अब इसे समझ आ गया -निराकार ,निर्विकल्प ,निर्गुण ,निर- तर्क और सविकल्प साकार यह एक ही है जो सबमें है।
गुरु के कान में जनक कह रहे हैं राम को देखते हुए- आपने मुझे पहले जो साधन बतलाया था निर्गुण ब्रह्म उपासना का अब वह मैं नहीं करूंगा।वह साधन तो बहुत कठोर है। अब मैं इनकी ही उपासना करूंगा।
लेकिन ये क्या ?
राम के दर्शन का फल तो आनंद है लेकिन जनक का मुख म्लान क्यों हो गया -तब जनक ने गुरु के कान में बतलाया मैंने इतनी कठोर और यह प्रतिज्ञा क्यों कर डाली के जो शिव के धनुष को उठाएगा उसी के गले में सीता जयमाल डालेगी।
मैंने क्यों प्रतिज्ञा कर ली अब मुझे इंतज़ार करना पड़ेगा वरना महल में जाकर सीता से कहता राम को जयमाला डाल दो जनक मन ही मन सोचते चले जा रहे हैं।
युवती भवन झरोखन लागीं -अयोध्या के भवनों के झरोखों से युवतियां राम के रूप लावण्य को निहार रहीं हैं।
राम का बड़ा सम्मान है नगर में बड़ी चर्चा है राम की । पूरे नगर में चर्चा है देखो तो राम कैसे हैं। जानकी जी भी अपने को रोक नहीं पाईं वहीँ आ गईं वन में प्रणाम करने।
राम के सकल व्यक्तित्व की ,राम के चरित्र की पूरे नगर में चर्चा है। सीता रोक नहीं पाईं अपने आप को। मंदिर जाने के बहाने से उन्होंने अपनी माँ से कहा माँ मैं मंदिर हो आऊँ। और मन ही मन कहने लगीं राम से -हे प्रभु आप भी मंदिर आ जाइये न। वहां दर्शन हो सकेंगे आप के।
अब ये भनक राम के कान में पड़ी के सीता ऐसा चाहती हैं तो वो गुरुदेव से कहने लगे हे गुरुदेव आपकी आज्ञा हो तो मैं लक्ष्मण को यह नगर दिखा लाऊँ।
गुरुदेव ने कहा बिलकुल जाओ और आराम से आना सांझ तक आना। राम ने लक्ष्मण से कहा हमने इतने बड़े बड़े काम किये चलो आज शिव के दर्शन भी कर आएं।
बिल्व ,मधुपर्क ,पंचामृत ,विशेष अर्घ्य लिए हैं ,जानकी लिए हैं। पकवान हैं दिव्य वस्त्र आभूषण हैं ,माँ को चढाने के लिए । चंदन ,रोली तमाम पूजा सामिग्री एक बड़े स्वर्ण थाल में लिए जानकी चल दीं हैं बाग़ (वन )की ओर सहेलियों के संग भगवान् को मन ही मन याद करते हुए। उनके कंगन इतने बड़े थाल को संभालते हुए हिल रहे हैं।उनके पैरों की पायल के नन्हे -नन्हे घुंघरू की ध्वनि आ रही है।
दूर से आता हुआ कंगनों का स्वर उनकी धुन ,बड़ा कुण्डल पहने हुए हैं माँ। बहु बेटियों का श्रृंगार बड़ों को आदर देने के लिए पूजा के लिए है।
"ये धुन सुन ये स्वर कहाँ से आ रहा है ?लक्ष्मण सुन ये स्वर -लखन के कंधे पर हाथ रखते हुए भगवान् कहते हैं -लक्ष्मण कहते हैं हाँ मैं इन स्वरों को इस धुन को भलीभांति पहचानता हूँ मैं इस धुन को पहचानता हूँ। जब लक्ष्मी जी सेवा करती है विष्णु की तो उनके आभूषण जो ध्वनि करते हैं लक्ष्मण उस ध्वनि को बरसों से पहचानते हैं।
अपनी अर्द्धांगनी को देख कर राम ठगे से रह गए। मेरी सीता कितनी सुन्दर हैं राम को लक्ष्मी जी से बिछड़े हुए मुद्दत जो हो गई है।राम सीता को निहार रहे हैं।
अगर मैं बार -बार सीता को देख रहा हूँ तो हे लक्ष्मण इसका अर्थ ये है मैंने सपने में भी पर -नारी नहीं देखी है ये सीता मेरी ही है।
ऐसा राम लक्ष्मण को छोटे भाई की मर्यादा रखते हुए कह रहे हैं अरे ओ लक्ष्मण ये सीता मेरी ही है मैं इसीलिए इसे बार -बार देख रहा हूँ ,मैं इक्षवाकु वंश का हूँ।मैंने सपने में भी पर नार नहीं देखी है। राम ऐसा बार बार इसलिए भी कह रहे हैं उन्हें मालूम है शिव धनु किसी से उठेगा नहीं राजा जनक झुंझला कर ऐसी वैसी बात कहेंगे -मेरे भाई को गुस्सा आएगा। आवेश में आकर कहीं वह ही धनुष न तोड़ दे।
विनय प्रेमवश भई भवानी ,
खसी माल मूरत मुस्कानी।
मूर्ती से निकलके पारवती प्रकट हो गईं -आशीष देने लगीं जानकी जी को -
जय जय जय श्री राज किशोरी ,
जय महेश मुख चंद्र चकोरी।
सुन सिय सत्य अशीष हमारी ,
पूजहि मन कामना तुम्हारी।
भारत का एक शगुन विज्ञान है -नील कंठ के दर्शन हो गए ,श्यामा आ गई ,कुमारी कन्या भरा हुआ घड़ा लेकर चल रही है इसे शुभ समझा जाता है स्त्री के बाएं अंगों और पुरुष के दाएं अंग फड़कने को शुभ समझा जाता है। बिल्ली के मार्ग में आने को अशुभ समझा जाता है। बंदर की उछल कूद के मायने भिन्न हैं।
बाएं अंग बाईं आँख फड़कने लगी माँ की। उंगलियों से छूआ आँख को और चूम लिया उँगलियों को हाथ को -मेरी मनोकामना पूरी होगी भगवान्।
जो सबसे ऊंचा था मुनियों का ,आचार्यों का,उसके नीचे राजाओं का ,और उससे भी नीचे उनके सचिवों का आसन उससे भी ऊंचा गुरु का आसन है राम -लक्ष्मण को भी वहीँ गुरु के साथ बिठाया जाता है।राम लखन तो राजकुमार थे और इस सभा में वह निमंत्रित नहीं थे केवल सभी राज्यों देशों के राजाओं को ही बुलाया गया था स्वयंवर की इस सभा में भव्य आयोजन में लेकिन वह तो गुरु के साथ थे इसीलिए किसी को कोई आपत्ति भी नहीं थी।
भूप सहस दस एकहि बारा ,
लगे उठावन टरै न टारा।
विषयी कामी राजा धनुष को हिला भी न सके। सहसत्र बाहु उठा फिर रावण उठा पर वह शिव धनु हिला न सके।अपमानित होकर कितने ही उस परिसर से लजाकर चले गए।
तब राजा ने कहा ये पूरी धरती वीर विहीन हो गई। अब कोई पराक्रमी बलशाली राजा धरा पर नहीं रहा। मुझे ये पता होता तो मैं ऐसी प्रतिज्ञा न करता।
राजा के ऐसे वचन सुनकर लक्ष्मण जी अपने स्थान से मंच से एकदम कूद गए -आवेश में आकर कहने लगे जहां मेरा भाई राम बैठा हो वहां ऐसे अ -मर्यादित शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया जाता है ,ऐसे वचन नहीं बोले जाते हैं -राजा अपना वचन वापस लो।
ये धनुष क्या मैं इस ब्रह्माण्ड को ही कच्चे घड़े की तरह फोड़ दूँ। ऐसे धनुष प्रत्यंचा चढ़ा चढ़ा के न जाने हमने अपने गुरु के साथ कितने तोड़ दिए।
और फिर तभी ऐसा कहकर लक्ष्मण मुस्कुराने भी लगे जनक को प्रणाम करके चुपके से राम के चरणों में आकर बैठ गए।राम ने उनकी तरफ देख कर उन्हें इशारों इशारों में ही तरेड़ा था ,लक्ष्मण समझ गए थे।
अब विश्वामित्र को लगा यह शुभ समय है -
विश्वामित्र समय शुभ जानी ,
बोले अति स्नेहमय वाणी।
उठौ राम भंजो भव चापा ,
मैटो चाप जनक परितापा।
राम मन ही मन गुरु को, देवसत्ता को पितृ सत्ता को प्रणाम करते हैं -पूरी परम्परा का स्मरण किया राम ने।
कथा का यहां संकेत है जब भी जीवन में कोई बड़ा काम करो -अपनी परम्परा पूर्वजों को प्रणाम करो उनके मन ही मन आशीष लो -
गुरुहि प्रणाम मन ही मन कीना ,
अति लाघव उठाय धनु लीना।
ऐसा लगा राम प्रणाम कर रहे हैं शिव धनु को ।सब कुछ पलक झपकते ही हो गया।
लेत चढ़ावत खेंचत गारै ,
काउ न लखा ,देखें सब ठाढ़ै।
देखा राम मध्य धनु तोड़ा -सबने देखा राम के धनुष ने बीच में से दो टुकड़े कर दिए हैं लेकिन कब कैसे यह किसी ने भी नहीं देखा। भगवान् का किया हुआ दिखाई नहीं देता वह बस हो जाता है।
उसकी धनुष भंग की बड़ी ध्वनि हुई। जैसे ही धनुष तोड़ा जनक जी ने जानकी जी को संकेत किए और जानकी जी चल पड़ीं।
शंख झाँझर मृदंग सब बाजे।
सखियों ने सीता जी को कहा धीरे -धीरे चलो ,सीता जी तेज़ चल रही हैं। उत्सव के आनंद में उनकी स्वाभाविक गति खो सी गई है उत्सव के भाव आनंद अनुराग में इष्ट की करुणा में में व्यक्ति कई बार अपनी सहजता खो देता है। वह खो सा जाता है कहीं।
सीताजी लखन से कहने लगीं मन ही मन -ये आँख बंद करके खड़े हैं सिर झुकायेंगे नहीं ,आँखें बंद किये रहते हैं ,इनकी तो प्रकृति ही ऐसी है ,शेष- शैया पर भी सोते ही तो रहते हैं। तुम मेरे बालक हो मेरा आज काम कर दो। लक्ष्मण ने मन ही मन कहा माँ तुम निश्चिन्त रहो मेरे पास सौ तरीके हैं राम को झुकवाने के।
लक्ष्मण जी राम के चरणों में झुक गए प्रणाम करने के लिए -राम आषीश देने के लिए लक्ष्मण को उठाने के लिए झुके -लक्ष्मण -बोले भैया प्रणाम।
राम ने पूछा ये कौन से समय का प्रणाम था। बोले लक्ष्मण राम जी को तो जब जी चाहे ,कभी भी प्रणाम कर लो।आपका स्मरण करने का क्या कोई समय होता है मेरा मन किया मैंने कर लिया।
और तुरंत जानकी जी ने जयमाल राम के गले में डाल दी।
गावहिं मंगल गान सहेली ......
परशुराम भी आये कुछ नौंक झौंक भी हुई और वह समझ गए ये राम हैं। बारात फिर अयोध्या चली आई -मांडवी भरत की, उर्मिला लक्ष्मण की और श्रुतिकीर्ति शत्रुघ्न की वामांगी बनी.
दसरथ कुछ पल के लिए अप्रसन्न हो गए -राजा जनक ने दशरथ से कह दिया अब सीमाएं आ गईं हैं दोनों नगरों की -ये सीता अब अयोध्या की दासी है अब ये अयोध्या की सेवा करेगी।
दशरथ ने कहा ये अब हमारी सीमा में है आप इसे अपने घर में कुछ भी कहो यहां अयोध्या में तो यह पटरानी है दासी नहीं है यह हमारे घर की रानी है। आइंदा ऐसे शब्दों का इस्तेमाल आप न करें।
कथा का यहाँ सन्देश है -
किसी की बेटी को लेकर आओ उसे घर की बहु बनाना पटरानी बनाना उसे इस ढंग से प्रीती देना उसे अपना घर याद न आये। यही कथा का सन्देश है।
जब ते राम ब्याहे घर आये
नित नव मंगल मोद बधाये।
सन्दर्भ -सामिग्री :
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