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कलि -संतरणोपनिषद -कृष्ण द्वैपायन व्यास (मंत्र संख्या तीन ,TEXT 3 )

कलि -संतरणोपनिषद -कृष्ण द्वैपायन व्यास (मंत्र संख्या तीन ,TEXT 3 )

भगवत आदि पुरुषस्य नारायणस्य नामोच्चारण ,

मात्रेण निर्धूत कलिर्भवति। 

केवल नारायण के नाम का स्मरण करने भर से जो सभी पापों का नाशक देवता है सर्वपापहर्ता है कलियुग के प्राणी के सारे पापों का नाश हो जाता है। वह निष्पाप ,अनघ, हो जाता है। भगवान् का नाम स्मरण ही कलियुग के मल (कलिमल )को धौ डालने वाला साबुन है।

भगवान् और उसके नाम में कोई फर्क नहीं है। यह उसकी अहेतुकी कृपा ही है के हमारे सारे पाप धुल जाते हैं। उसकी किरत करने से उसका नाम स्मरण करने से। उसके नाम में इतना पावित्र्य है जो हमारे जन्मजन्मान्तरों के पापकर्मों का नाश कर देता है। हमारी आत्मा पे जमा युग-युगान्तरों के पापकर्मों का बोझ हट जाता है।

कलियुग में नाम स्मरण ही उपाय है और कोई अन्य उपाय नहीं है पाप मुक्ति का। (इस उपनिषद में महामन्त्र की महिमा का ही बखान किया गया है जिसकी विस्तार से चर्चा आगे इसी उपनिषद में होगी ). 

इस कलियुग में ऐसे भ्रष्ट गुरु भी कम नहीं है जिनके अंदर ही  कलियुग रहता है जो महा -मंत्रोचार के अलग ही तरीके बतलाते हैं। इन चाण्डालों के हृदयरूपी घर में  ही कलियुग रहता है। इनसे बचना है। रौरव नर्क में ले जाएगा इनका संग  साथ। 

हमारा अति तुच्छ लघुतर वज़ूद पूर्व जन्मों के लोभ ,मोह ,अहंकार ,काम ,से आवृत है ,अज्ञान में लिपटा हुआ है नारायण की महिमा अपार है। इस कलिकाल में ही चांडाल रूप स्वयं भू ,अपने  को ही नारायण बतलाकर भोली भाली जनता को पाप मार्ग पे प्रवृत्त कर देते हैं । 

हम श्री कृष्ण(नारायण ) की दिव्यऊर्जा(Divine Energy ) के अंश जीव -आत्मा हैं।उसी की मटेरियल एनर्जी के मायाजाल (माया )से हम ताउम्र छले जाते हैं। वह विभु है हम अनु है। वह अनंतदिव्य गुणों वाला है ,सर्वज्ञाता है हम अल्पज्ञान ,अल्प  बुद्धि हैं। सिर्फ गुणात्मक रूप में ही हम उसकी दिव्यऊर्जा के अंश हैं मात्रात्मक रूप में नहीं। हम बूँद वह सागर है ,हम स्वर्ण के एक कण मात्र हैं वह स्वर्ण ही स्वर्ण  है। और हमारा यह तुच्छ लघु अस्तित्व भी  माया से लिपटा हुआ है। महामंत्र हमें हमारे निज स्वरूप का बोध करवाता है।हमारा उससे ऐक्य भी है हम उससे अलहदा भी हैं।  

भगवान् चैतन्य  महाप्रभु (जो स्वयं कृष्ण का ही भक्त रूप अवतार है )का अचिन्त्य भेदाभेद तत्व सार यही है। 





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