विधानसभा चुनावों के नतीजों का विश्लेषण अभी कुछ वक्त तक जारी रहेगा लेकिन अब तक जितनी जानकारी सामने आई है, उनके आधार पर ही यह चर्चा शुरू हो गई है कि क्या यह नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए ख़तरे की घंटी है?
2014 के लोकसभा चुनाव में शानदार जीत के बाद से, बिहार, दिल्ली से लेकर पंजाब तक, बीजेपी को कई छोटी-बड़ी हारों का सामना करना पड़ा है, लेकिन यह झटका काफ़ी बड़ा है. 'कांग्रेस मुक्त भारत' का नारा देने वाली पार्टी से कांग्रेस ने तीन बड़े राज्य छीन लिए हैं.
लेकिन इन नतीजों के आधार पर 2019 के लिए कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी, ऐसा मानने की कई वजहें हैं.
सबसे पहली बात तो यह है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में अभी करीब चार महीने बचे हैं, अभी जो चुनावी गहमागहमी दिख रही है वह लोकसभा चुनाव तक चलती रहेगी. विधानसभा चुनाव के नतीजे निश्चित तौर पर पार्टियों के मनोबल पर असर डालते हैं लेकिन उनकी अहमियत को सही ढंग से समझने की ज़रूरत है.
अंग्रेज़ी का मुहावरा उधार लें तो 'राजनीति में एक हफ़्ता बहुत लंबा समय होता है', अभी तो चार महीने बाकी हैं. साथ ही, यह भी याद रखना चाहिए कि विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में लोग अलग-अलग तरीके से वोट देते हैं. इसकी सबसे बड़ी मिसाल है, फ़रवरी 2015 में हुए दिल्ली के विधानसभा चुनाव, जिसमें आम आदमी पार्टी ने 70 में से 67 सीटें जीत ली थीं, जबकि कुछ ही महीने पहले मोदी लहर से केंद्र में सरकार बनी थी.
यह भी समझना चाहिए कि मोदी ने संसदीय चुनावों को अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव की तरह बना दिया है. 2014 की ही तरह, 2019 का चुनाव भी वे अपनी निजी लोकप्रियता के आधार पर लड़ेंगे, जिसमें मुख्य संदेश यही होगा कि मोदी नहीं तो क्या राहुल गांधी?
लेकिन यह बिल्कुल भी ज़रूरी नहीं है कि यह दांव काम कर जाए. जिन लोगों को 2004 के लोकसभा चुनाव याद हैं, वे जानते हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी कितने लोकप्रिय नेता थे और उनके सामने एक 'विदेशी मूल' की महिला थी जो ठीक से हिंदी बोल नहीं पाती थी, और तब इंडिया शाइन कर रहा था. उस समय पार्टी के सबसे तेज़-तर्रार माने जाने वाले नेता, प्रमोद महाजन ने पूरे जोश और आत्मविश्वास से जीत की भविष्यवाणी की थी.
उनकी इस भविष्यवाणी से राजनीति करने वालों, और उस पर टिप्पणी करने वालों को सीखना चाहिए कि भविष्यवाणियां अक्सर ग़लत साबित होती रहती हैं. भारत का वोटर कब क्या जनादेश देगा, यह बता पाना बहुत मुश्किल है. हालांकि 2004 से लेकर अब तक भारत की राजनीति बहुत बदल चुकी है लेकिन एक बात नहीं बदली है, वह है मतदाता के मन की गुत्थियां सुलझा पाने में बार-बार मिलने वाली नाकामी.
2004 की थोड़ी और चर्चा कर लें तो शायद 2019 की थाह लेने में कुछ मदद मिले. यह अपने-आप में कम दिलचस्प बात नहीं है कि 2003 में हुए विधानसभा चुनावों में वाजपेयी के नेतृत्व में बीजेपी ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ कांग्रेस से छीन लिए थे.
अटल बिहारी वाजपेयी ने इसी जीत के बाद अति-आत्मविश्वास में लोकसभा चुनाव जल्दी कराने का फैसला किया था. उस वक़्त बीजेपी की सोच थी कि वाजपेयी के कद के सामने सोनिया गांधी टिक नहीं पाएंगी, लेकिन जैसा दिसंबर में सोचा था, वैसा मई में नहीं हुआ. बीजेपी चुनाव हार गई और सरकार कांग्रेस ने बनाई.
कांग्रेस को कड़ी मेहनत के बाद तीन राज्यों में कामयाबी तो मिली है, लेकिन इसे 2019 में जीत की गारंटी नहीं माना जा सकता, ऐसा सोचना जल्दबाज़ी होगी. कांग्रेस की ताज़ा कामयाबी को गौर से देखें तो कई छोटी-बड़ी बातें समझ में आती हैं.
पहली बात तो ये है कि दो बड़े राज्यों--मध्य प्रदेश और राजस्थान--में कांग्रेस और बीजेपी के वोटों का प्रतिशत लगभग एक बराबर है, रुझान के समय के चुनाव आयोग के आंकड़े दिखा रहे हैं कि दोनों के बीच का अंतर ज़्यादा-से-ज़्यादा एक प्रतिशत का है.
इस बहुत कम अंतर का मतलब है कि इस चुनाव के परिणाम मोदी की लोकप्रियता में किसी बड़ी गिरावट का संकेत नहीं दे रहे हैं, लेकिन यह ज़रूर है कि राहुल गांधी उनके सामने एक चुनौती के तौर पर उभर ज़रूर रहे हैं. यह चुनौती और बीजेपी मोदी-शाह की रणनीति अगले चार महीने में कई दिलचस्प सियासी खेल दिखाएगी.
इसका यह नतीजा भी नहीं निकालना चाहिए कि 2019 में मोदी की वापसी तय है, बहुत सारे फ़ैक्टर बीजेपी के अनुकूल नहीं हैं. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में बीजेपी बेहद मज़बूत मानी जाती रही है, इन राज्यों में कुल मिलाकर 65 लोकसभा सीटे हैं. मध्य प्रदेश में 29, राजस्थान में 25 और छत्तीसगढ़ में 11 लोकसभा सीटें हैं.
2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की शानदार जीत में इन राज्यों का अहम योगदान रहा था. मध्य प्रदेश में 27, राजस्थान में 25 और छत्तीसगढ़ में 10 सीटें मिलाकर बीजेपी को कुल 62 सीटें इन तीन राज्यों से निकाली थीं. अगर जनता का मौजूदा मूड बरकरार रहा तो बीजेपी को इन राज्यों में सीटों का नुकसान ज़रूर होगा.
लेकिन मोदी विरोधियों को यह नहीं भूलना चाहिए कि मोदी-शाह की जोड़ी ने देश में चुनाव लड़ने के तौर-तरीके बदलकर रख दिए हैं, उन्होंने जीत के लिए किसी भी हद तक जाने के अपने जुनून से लोगों को कई बार चौंकाया है, 2019 का लोकसभा चुनाव वे इन विधानसभा चुनावों की तरह नहीं लडेंगे.
देखते जाइए, आगे-आगे होता है क्या! नतीजे निकालने और ख़तरे की घंटी बजाने में इतनी हड़बड़ी सही नहीं है.
बहुत सटीक आंकलन...
जवाब देंहटाएं