कैसा सेकुलर समाज है यह प्रजातांत्रिक संघीय गणराज्य है यह जहां धार्मिक आधार पर भेदभाव है मंदिर मस्जिद गिरजे गुरद्वारों का रखरखाव स्वायत्त नहीं है। मंदिरों पर सरकारी कब्ज़ा है।
मंदिरों पर सरकारी कब्ज़े का सवाल (शंकर शरण )
क्या इससे बड़ा धार्मिक अन्याय हो सकता है कि करीब चार लाख से अधिक मंदिरों पर सरकारी कब्ज़ा है ,किन्तु एक भी चर्च या मस्जिद पर राज्य का नियंत्रण नहीं ?
लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर एवं वरिष्ठ साहित्यकार हैं।
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उत्तरा खंड के मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत की ओर से राज्य के ५१ मंदिरों को सरकारी नियंत्रण से बाहर करने की घोषणा उस मुहिम का नतीजा है ,जिसके तहत कुछ समय से सचेत हिन्दू पूरे देश में मंदिरों की मुक्ति का अभियान चला रहे हैं। धीरे -धीरे इसमें इतनी गति आ गई है कि राजनीतिक दल भी इसे अपने वायदों (संकल्प पत्रों मैनिफेस्टोज में भी स्थान देंगे आज नहीं तो कल ) में जगह देने लगें हैं।
तमिलनाडु विधान सभा चुनाव के दौरान सद्गुरु जग्गी वासुदेव ने लोगों से निवेदन किया कि वे वोट मांगने वालों से मंदिरों को राजनीतिक चंगुल से मुक्त कराने का वचन लें। इसी तरह अपवर्ड ,जयपुर डायलॉग्स जैसे कुछ शैक्षिक -वैचारिक मंच भी इसके लिए जन-जागरण चला रहे हैं। इस बीच भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कई मंदिरों के लिए केंद्रीय बोर्ड बनाने की भी बात छेड़ी है यानी मंदिरों को अप्रत्यक्ष सरकारी नियंत्रण में लेने का प्रस्ताव। इस पर तीखी प्रतिक्रियाएं हुई हैं। इसके पीछे कुछ विशेष संगठनों को मंदिर के संचालन में स्थायी अधिकार देने की योजना देखी जा रही है। यह आशंका निराधार नहीं।
हमारे देश में स्वतंत्रता के समय से ही सोवियत मॉडल पर राज्यतंत्र के अधिकाधिक विस्तार की बुरी परम्परा बनी.उससे होने वाली हानियाँ ,व्यापक भ्रष्टाचार और अन्ततया सोवियत संघ का विघटन देखकर भी हमारे राजनीतिक दलों में उसका आकर्षण नहीं घटा। कारण यही कि राज्यतंत्र का विस्तार उनकी निजी ताकत और सुविधाएं बढ़ाता है। यह आशंका गलत नहीं कि मंदिरों को कब्ज़े में लेकर नेता वर्ग अपनी ताकत और आमदनी बढ़ाना चाहें. इसका सबसे दुखद पहलू यह है कि जिस हिन्दू समाज के बल पर भारतीय राज्यतंत्र दशकों से चल रहा है उसी के हितों की लगातार बलि चढ़ाई जाती रही है। स्वतन्त्र भारत में ही हिन्दुओं को मुस्लिम और ईसाई समुदायों की तुलना में हीन दर्ज़े में कर दिया गया जो ब्रिटिश राज में भी नहीं था। स्वयं भारतीय संविधान में ऐसी व्यवस्था कर दी गई कि हिन्दुओं को मुस्लिमों ,ईसाइयों की तुलना में कम शैक्षिक ,धार्मिक ,कानूनी अधिकार हैं। इस और संकेत करते हुए डॉ. आम्बेडकर ने भारतीय संविधान को गैर -सेकुलर कहा था ,क्योंकि 'यह विभिन्न समुदायों के बीच भेदभाव करता है। 'इसी मूल गड़बड़ी का नतीजा हिन्दू मंदिरों पर सरकारी कब्ज़ा भी है। यह हिंदूवादी कहलाने वाले शासन में भी ज़ारी है।
जबकि सुप्रीम कोर्ट भी हिन्दू मंदिरों पर सरकारी कब्ज़े को कई बार अनुचित कह चुका है। कोर्ट ने साफ़ कहा है कि 'मंदिरों का संचालन और व्यवस्था भक्तों का काम है ,सरकार का नहीं। '
उसने चिदंबरम (तमिलनाडु )के नटराज मंदिर को सरकारी कब्ज़े से मुक्त करने का आदेश २०१४ में दिया था। इसके अलावा पुरी जगन्नाथ मंदिर के बारे में जस्टिस बोबडे ने कहा था ,'मैं नहीं समझ पाता कि सरकारी अफसरों को क्यों मंदिर का संचालन करना चाहिए ?उन्होंने तमिलनाडु का उदाहरण दिया कि सरकारी नियंत्रण के दौरान वहां अनमोल देव -मूर्तियों की चोरी की अनेक - अनेक घटनाएं होती रहीं हैं। ऐसी स्थितियों का कारण भक्तों के पास अपने मंदिरों के संचालन का अधिकार न होना है। यह अधिकार राज्य ने छीन लिया और उसके अमले वैसे ही काम करते हैं ,जैसे आम सरकारी विभाग। वे धार्मिक गतिविधियों ,रीतियों में भी हस्तक्षेप करते हैं। सरकारी अफसरों को तो मात्र नागरिक शासन चलाने की ट्रेनिंग मिली है। इसलिए कोई अफसर अपने पूर्वग्रह ,अज्ञान या मतवादी कारणों से हिन्दू धर्म के प्रति उदासीनता या दुराग्रह भी दिखा सकता है। इस अनुभव के बावज़ूद सरकारें हिन्दू मंदिरों पर दिनों -दिन कब्ज़ा बढ़ा रहीं हैं। इनमें भाजपा सरकारें भी हैं। क्या इससे बड़ा धार्मिक अन्याय हो सकता है कि करीब चार लाख से अधिक मंदिरों पर सरकारी कब्ज़ा है ,किन्तु एक भी चर्च या मस्जिद पर राज्य का नियंत्रण नहीं है ?
हिन्दू समाज के अलावा शेष सभी समुदाय अपने -अपने धर्मस्थान स्वयं चलाने के लिए पूर्ण स्वतन्त्र हैं। यह भेदभाव हिन्दू समुदाय को दिनों -दिन और दुर्बल ,असहाय बनाने का उपाय है।
सर्वविदित है कि कुछ बाहरी पंथ भारत में हिन्दू धर्म पर प्रहार करते रहे हैं सदियों से छलबल से हिन्दुओं का मतांतरण कराते रहें हैं। अपने इलाकों में उन्हें मारते -भगाते रहे हैं। उन्हीं समुदायों को मंदिरों की आय से ही विशेष सहायता दी जाती है। आंध्र और कर्नाटक में हिन्दू मंदिरों की आय से हज़ सब्सिडी देने की बात कई बार जाहिर हो चुकी है। यह तो सीधे -सीधे हिन्दू धर्म पर चोट है। राजकीय कब्ज़े वाले हिन्दू मंदिरों के पुजारी सरकारी अफसरों के अनुचर बना दिए गए है उन्हें अपने ही मंदिरों की देख -रेख से वंचित या बाधित कर दिया गया है। वह मंदिरों के पारम्परिक शैक्षिक ,कला ,संस्कृति या सेवा सम्बन्धी कार्य नहीं कर सकते ,जो सदियों से होते आ रहे थे ,जैसे पाठशालाएं ,वेदशालाएँ ,गौशालाएं ,चिकित्सालय ,शास्त्रीय नृत्य आयोजन आदि।इस प्रकार भारत में हिन्दू मंदिर के पुजारियों की तुलना में किसी मस्जिद के इमाम या चर्च के बिशप की सामाजिक स्थिति मजबूत होती गई। वे अपने समुदाय को समर्थ ,सबल बनाने के लिए मस्जिद और चर्च इस्तेमाल करने के लिए स्वतन्त्र हैं। यह भी तुलनात्मक रूप से हिन्दुओं के लिए एक गंभीर हानि है। यह हानि और अधिक खतरनाक होने वाली है। इसे समय रहते समझना चाहिए।
मंदिरों में भक्तों द्वारा चढ़ाया गया धन सरकार द्वारा लेना भी संविधान के अनुच्छेद २५ -२६ का उल्लंघन है। सरकारी कब्ज़े के कारण ही मंदिरों से सर्विस टेक्स वसूला जाता है। यह मस्जिदों या चर्चों से नहीं वसूला जाता।कई मंदिरों में आडिट फीस ,प्रशासन चलाने की फीस और दूसरे तरह के टेक्स वसूले जाते हैं। किसी -किसी मंदिर की आय का लगभग ६५ -७० फीसद तक सरकार हथिया लेती है। १९८६ -२००५ के बीच तमिलनाडु में मंदिरों की हज़ारों एकड़ ज़मीन उनसे छिन गई।हज़ारों एकड़ पर अवैध अतिक्रमण चुका है। यह सब सरकारी कब्ज़े की व्यवस्था का नमूना है।
याद रहे कि भारतीय परम्परा में किसी भी हिन्दू राजा ने मंदिरों पर अधिकार या नियंत्रण नहीं जताया ,न उनसे कर वसूला। धार्मिक कार्य में राजा द्वारा हस्तक्षेप के उदाहरण नहीं मिलते। वे तो सहायता ही देते थे। मुगल काल में मंदिरों को तरह -तरह के राजकीय अत्याचार झेलने पड़ते थे। दुर्भाग्य वश स्वतन्त्र भारत में भी हिन्दू समुदाय को अपने धार्मिक -शैक्षिक -सांस्कृतिक संस्थान चलाने का वह अधिकार नहीं है ,जो अन्य को है।
(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफ़ेसर एवं वरिष्ठ स्तम्भकार हैं )
कृपया इस द्रुत टिपण्णी पर भी गौर करें -
मस्जिदें काश्मीर में आज भी आतंकी गतिविधियों का अड्डा बनी हुईं है। यह सब पूर्व प्रधानमन्त्री ने भी देखा। इतना सब देखते हुए भी उनका बयान आया - इस देश के संशाधनों पर पहला हक़ मुसलमानों का है ,तुष्टिकरण नेहरू कांग्रेस की देन रही आई है। बंगाल में इसका विकराल रूप आप देख ही रहे हैं।
अकाल तख़्त पर भिंडरावाला का नंगा नांच हम सब देख चुके हैं।
जो वृहत्तर भारत धर्मी सनातन समाज का धर्म परिवर्तन करें वह हिन्दू मंदिरों से पोषण प्राप्त करते रहें यह आइंदा न हो इसके पुख्ता इंतज़ामात होने चाहिए। कैसा सेकुलर समाज है यह प्रजातांत्रिक संघीय गणराज्य है यह जहां धार्मिक आधार पर भेदभाव है मंदिर मस्जिद गिरजे गुरद्वारों का रखरखाव स्वायत्त नहीं है। मंदिरों पर सरकारी कब्ज़ा है।
विश्व हिन्दू परिषद (VHP) ने देश के 4 लाख मंदिरों को सरकार के नियंत्रण से मुक्त कराने के लिए अभियान शुरू करने की घोषणा की है। विहिप के केंद्रीय महामंत्री मिलिंद परांडे ने इस तरफ इशारा करते हुए कहा कि विभिन्न राज्यों की सरकारों ने देश के 4 लाख मंदिरों पर कब्ज़ा कर रखा है, जिनसे वो अपील करते हैं कि इन मठों-मंदिरों को सरकारी कब्जे से मुक्त किया जाए। विहिप जल्द ही इन सरकारों से वार्ताएँ शुरू करेगा।
राज्य सरकारों के साथ वार्ता कर के उन्हें कहा जाएगा कि वो इन मठों-मंदिरों को अपने कब्जे से मुक्त करें। विहिप ने कहा है कि अगर ज़रूरत पड़ती है तो इसके लिए कानूनी लड़ाई भी लड़ी जाएगी और सुप्रीम कोर्ट में केस दर्ज किया जाएगा। ‘दैनिक जागरण’ की खबर के अनुसार, मिलिंद परांडे ने कहा कि समाज हित में उपयोग किए जाने की बजाए दानदाताओं द्वारा मठ-मंदिरों को दी गई जमीनों का उपयोग दूसरे कामों के लिए किया जा रहा है।
संघ के अखिल भारतीय सह प्रचार प्रमुख नरेंद्र ठाकुर सहित कई संगठनों ने भी सोशल मीडिया के माध्यम से विहिप की इस पहल का समर्थन किया है। RSS नेता नरेंद्र ठाकुर ने कहा कि हिंदू मंदिर सरकारी नियंत्रण से मुक्त होने चाहिए तथा उनका संचालन समाज के स्तर से होना चाहिए। उन्होंने कहा कि मंदिर में आए धन का उपयोग सामाजिक कार्यों में होना चाहिए। परांडे ने सभी मंदिरों में हिन्दू धर्म के प्रचार के लिए केंद्र बनाने की बात की।
उन्होंने कहा, “मंदिरों के दान का उपयोग हिंदू संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए होना चाहिए। कई सरकारों द्वारा मंदिरों पर कब्जा कर भारतीय संस्कृति को समाप्त करने की साजिश रची जा रही है। कई मंदिरों में तो पूजा-पाठ तक ठीक से नहीं हो रहा है। इसके लिए समाज के लोगों को आगे आकर सरकारों पर दबाव बनाना चाहिए कि वे मंदिरों के संचालन की जिम्मेदारी समाज को सौंपें। श्रद्धालु ही मंदिरों का प्रबंधन करें।”
उन्होंने इसके लिए आंध्र प्रदेश के तिरुपति तिरुमला मंदिर का उदाहरण दिया। वहाँ प्रतिवर्ष श्रद्धालुओं के दान से 1300 करोड़ रुपए आते हैं। इनमें से 85% धनराशि को सीधा सरकारी राजकोष में भेज दिया जाता है। उन्होंने आरोप लगाया कि प्रदेश सरकार के कहने पर वहाँ के 10 मंदिरों को अपनी जमीन गोल्फ कोर्स बनाने के लिए देनी पड़ी, जबकि हिंदुओं ने इस कार्य के लिए जमीन नहीं दी थी। जमीन का उपयोग धर्म के कार्यों के लिए नहीं हुआ।
मिलिंद परांडे ने कहा कि राज्य सरकारों द्वारा मनमाने ढंग से मंदिरों की सम्पत्तियों का उपयोग किया जा रहा है। साथ ही पूछा कि क्या इसीलिए हिन्दू चढ़ावा देते हैं? उन्होंने दूसरे धर्मों-सम्प्रदायों के धार्मिक स्थलों की बात करते हुए कहा कि वहाँ वो लोग खुद उनका प्रबंधन करते हैं। साथ ही सवाल दागा कि फिर हिन्दुओं के लिए ही इस तरह की बंदिश क्यों? हिन्दुओं द्वारा मंदिर को दिए गए धन पर सरकार का अधिकार नहीं होना चाहिए।
तमिलनाडु में सद्गुरु जग्गी वासुदेव के ‘ईशा फाउंडेशन’ ने इसी तरह का अभियान शुरू कर दिया है। उन्होंने तमिलनाडु का आँकड़ा देते हुए बताया कि वहाँ करीब 12000 मंदिर अवसान की ओर हैं, वो खात्मे की तरफ बढ़ रहे हैं। क्यों? क्योंकि वहाँ पूजा नहीं हो रही है। 34000 मंदिर ऐसे हैं, जिन्हें 10000 रुपए वार्षिक के हिसाब से अपने कामकाज चलाने पड़ते हैं। 37000 मंदिर वहाँ ऐसे हैं, जहाँ सिर्फ एक ही व्यक्ति है, जिसके हाथ में पूजा की पूरी जिम्मेदारी है।
https://hindi.opindia.com/miscellaneous/dharma-culture/vishwa-hindu-parishad-to-start-movement-to-free-temples-from-government/
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