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प्लेन का रन वे पर दौड़ना ,उठना और हवा में तैरने लगना सुरेश के मन में कोई कौतुक पैदा नहीं करता उसके मन में एक ही जिज्ञासा है जिज्ञासा आतंक हैं बेकली है बला की ,आप चाहे तो इसे साफ़ सफाई के प्रति ऑब्सेशन कह सकते हैं

समालोचना :समीक्षित कहानी 'जेट' ,लेखक श्री अनिल गांधी (आधुनिक  त्रिमासिक में प्रकाशित   त्रैमासिक आधुनिक साहित्य अधुनातन कथ्य परोसती है )

यहां सब कुछ आपके सामने घट रहा है संवाद से लेकर ना नुकुर से लेकर  टालू रवैये तक। गीता सुरेश ,ईशा और केशव सिर्फ चार पात्र हैं  जो एकल परिवार की शर्त पूरी करते हैं। केशव तलाकशुदा है। ईशा और अँगरेज़  फ्रेंक पतिपत्नी हैं चारों पात्र हाड़मांस के बने हैं मेरे आपके हमारे एकल परिवारों को शक्ल सूरत मुहैया करवाते हुए।सुरेश -बेटी ईशा और बेटे केशव के पिता है फ्रेंक दामाद हैं।गीता सुरेश की इकलौती पत्नी है परिवार की धड़कनों में रची बसी सजी।   

प्लेन का रन  वे पर दौड़ना ,उठना और हवा में तैरने लगना सुरेश के मन में कोई कौतुक  पैदा नहीं करता उसके मन में एक ही जिज्ञासा है जिज्ञासा आतंक हैं बेकली है बला की ,आप चाहे तो इसे साफ़ सफाई के प्रति ऑब्सेशन कह सकते हैं। होतीं हैं कई शख्शियत रोगभ्रमी ,हाइपो -कोंड्रीयाक भले सुरेश ऐसे न हों लेकिन उनका एक रवैया है ज़िंदगी के प्रति जहां किसी से कोई समझौता  नहीं प्रक्षालन पर। 

   क्या  वाटर 'जेट' ,पू प्रक्षालन परम्परागत है वहां विदेशी धरती पर ।जहां बेटी बेटा के बारहा के आग्रह के बाद सुरेश चल पड़ा है। जो होगा देखा जाएगा वाले हौसले के साथ। 

 'जंगल ' तो अब कोई जाता नहीं करना सब कुछ घर में पड़ता है चाहे रसोई और ग़ुस्ल एक दूसरे से सटे हुए हों या फिर दूर -दूर ,एक तसल्ली होती है जलप्रक्षालन से। लगता है सफाई हुई है। जहाज हवाई से उतरकर घर पहुँचते ही पहला काम यही करना होता है।पौछने से काम कहाँ चलता है कुछ न कुछ अवशेष रह ही जाता है।  

हमारी बेटी के घर भी यही व्यवस्था है जैसा कहानी 'जेट "में आगे जाके ज़िक्र किया गया है हर ग़ुस्ल में डिब्बा शानदार बड़ा ग्लास लेकिन हमारे यहां यह  व्यवस्था मुकम्मिल है स्टॉप गेप  अरेंजमनेट की तरह नहीं है यह कामचलाऊ जुगाड़ नहीं है। और कनाडा तो और भी आगे निकल गया है वहां एक नहीं दो -दो टॉयलिट सीट्स हैं  एक ही आदमी के लिए -एक करने के लिए दूसरी प्रक्षालन साफ़ -सफाई धोने के लिए।मज़ेदार बात यह है प्रक्षालन के लिए  जेट दूसरी सीट के बीचों बीच से उठता है.अब क्योंकि हम सीट पे झुके हुए थे लिहाज़ा जांच परख के दौरान  जेट ने हमारे चहरे को धौ डाला।

हम में से कितने ही  फोबिया से ग्रस्त  रहते हैं  प्लेन की मिनी बाथ का दरवाज़ा खुलेगा कैसे ,बंद होने के बाद अंदर ही तो नहीं रह जाएंगे ? 

यहां समस्या जेट है। एक मनोवैज्ञानिक समस्या जो पूरे चित्त पे हावी है। कहर ढ़ाया हुआ है इस समस्या ने और कुछ दिखाई नहीं  देता लगता है चारों तरफ आँखें जेट को ढूंढ रहीं  हैं। कहानी पढ़ने से ताल्लुक रखती है। कलेवर में यह एक खासी लम्बी कहानी है लेकिन पाठक को शामिल किये रहती है सुरेश के  मानसिक कुहांसे में। पाठक कहीं भाग  नहीं पाता  सुरेश के साथ ही रहना पड़ता है। भोक्ता यदयपि सुरेश  है लेकिन पाठक भी उसी यातना से गुज़रता है साक्षी भाव से दृष्टा बना नहीं रह पाता। यही इस कथा की खुसूसियत है जिसमें भाषा सरपट दुलकी चाल चलती है एक परिवेश की सृष्टि  करती है हवाईजाहज के अनाउंसमेंट से सीट बेल्ट एलर्ट से लेकर लेंडिंग तक। 

विदेशी धरती की साफ़ सफाई उसे जेट के बिना अधूरी लगती है कुछ न कुछ लगा रहा जाता है ,धोने वालों की बात ही कुछ और है। जल्दी  ही पाठक जेट कहानी का लिंक भी यहां देखेंगे। 

हरे कृष्णा !    

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